Monday, April 27, 2020

समाज पर सांस्कृतिक निशान छोड़ जाती हैं महामारियां

समाज पर सांस्कृतिक निशान छोड़ जाती हैं महामारियां (दैनिक हिन्दुस्तान २७ अप्रैल २०२० )संस्कृति और भारतीय आस्था के झरोखे से एक महत्वपूर्ण लेख है। लेखक समाज विज्ञानी बद्री नारायण जी ने  उल्लेख किया है कि ईसवी सन १५२० की आलमी महामारी चेचक ने भारत में भी अपने पाँव पसारे लेकिन यहां का आस्थावादी समाज विचलित नहीं हुआ -शीतला माता हो गई उत्तर भारत में आकर यह महामारी -स्माल पॉक्स।

खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई नगरों में शीतला माता के छोटे -छोटे  देवालयनुमा दड़बे (घर) बने हुए हैं पीपल के घने वृक्षों की छाँव तले। ठीक इसी तरह आपने प्लेग महामारी के संदर्भ में स्थानीय नाम ओला -ओथा ,अनन्तर बंगाल में ओला -बीबी के प्राकट्य का उल्लेख किया।

इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए क्या यह समीचीन नहीं होगा -हम वर्तमान कोरोना प्रकोप को कोरोना -बी (बड़ी -बी )सम्बोधन दें और उसका डोमेस्टिकेशन करें ताकि इस बीमारी -फिअर- साइकोसिस (भय और विक्षिप्तता )से भारतीय समाज मुक्त हो सके। ठीक है मौलाना साद ने भी अपनी  कोरोना जांच करवाई जो कल  तक कहते थे के सुपुर्दे खाक होने के लिए भी मस्जिद से पाकीज़ा जगह कहाँ है ?

यहां आकर हमारी विज्ञान बुद्धि (तर्कणा )का आस्था के साथ एक द्वंद्व पैदा होना स्वाभाविक है हालाकि हम पढ़ लिख गए हैं। गुणी कितने हैं पता नहीं कमसे कम मैं अपने तईं तो ऐसा कह ही सकता हूँ।जहां दवा काम न करे वहां करे दुआ -लेकिन हम विकास के जिस मोड़ पर आ खड़े हुए हैं वहां आकर दवा और दुआ दोनों का मिश्र यानी कॉम्बिनेशन थिरेपी ही कारगर होगी। दवा के साथ परहेज़ -फिज़ीकल डिस्टेंसिंग भी ज़रूरी है। मुख पट भी संस्कृति और अध्यात्म एवं फिज़ीकल साइंसिज दोनों अपने -अपने तरीके से सामाजिक सत्य का लोककल्याण हेतु अन्वेषण करते हैं।कोरोना के समग्र इलाज़ सामाजिक सामाजिक प्रबंधन  की जरूरत है।इस मुहिम में यूनानी चिकित्सा तथा आयुर्वेद भी साथ आये।  

वर्तमान आलमी महामारी कोविड -१९ जिसके लिए  सर्दी -जुकाम -फ्लू के वृहत परिवार कोरोना का ही एक सहोदर सार्स -कोव -२ कुसूरवार समझा गया है हमारे लिए कोई अनहोनी नहीं है। ये भी बीत जाएगा। यहां कुछ भी स्थाई नहीं है।हम देख लेंगे इसको भी। 
  

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