Tuesday, June 9, 2020

सब ते भले विमूढ़

मान्यवर लक्ष्मी नारायण गुप्त जी आपकी पोस्ट शेयर कर रहा हूँ आपको नमन करते
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कुछ दिन पहले एक सज्जन(?) ने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया। तबसे मैं सोच रहा हूँ कि हमारे सन्तों ने दुष्ट, कटुभाषी, नीच प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में क्या कहा है। आपने एक सन्त के बारे में सुना होगा जो एक बिच्छू को पानी में डूबने से बचा रहे थे और बिच्छू उन्हें डंक मार रहा था। किसी ने पूछा तो बताया कि बिच्छू अपने स्वभाव के अनुसार बर्ताव कर रहा है और वे अपने स्वभाव के अनुसार। मुझे शक है कि एक हाड़ मांस का इन्सान ऐसा कर सकता है।

अब कुछ सन्त कवियों की वाणी पर दृष्टि डालते हैं।

कबीर

निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना शीतल करै सुभाय

यानी कि निंदा करने वालों को ससम्मान अपने घर में रखना चाहिए जिससे वे बिना पानी या साबुन के आपके स्वभाव को शान्त रखेंगे।

यह तो बहुत प्रशंसनीय़ दृष्टिकोण है किन्तु कबीर जैसे सिद्ध पुरुष ही ऐसा कर सकते हैं। उन्हीं कबीर ने यह भी कहा है:

कबीर संगति साधु की हरै और की व्याधि
संगति बुरी असाधु की आठौं पहर उपाधि

साधु जनों की संगति अच्छी होती है; वह आपकी सभी बाधाओं को दूर रखती है किन्तु असाधू की संगति से दिन-रात उपद्रव लगा रहता है।

में सोचता हूँ कि कबीर जैसे संत की निंदा करने वाला भी असाधु ही होगा। आप यह विरोधाभास देख रहे हैं।

रहीम

रहीम अपनी दानवीरता के लिए मशहूर हैं किन्तु वे अकबर के सिपहसालार भी थे। अतएव उनका रुख कुछ और ही है।

खीरा को मुख काटि कै मलियत लोन लगाय
रहिमन करुए मुखन को चहिए यही सजाय

जैसे खीरे के मुख को काट कर उस पर नमक लगाते हैं; कटु वचन बोलने वालों के साथ भी ऐसा ही होना चाहिए।
यह बर्ताव तो संतों जैसा नहीं प्रतीत होता।

लेकिन रहीम यह भी कहते हैं कि उत्तम स्वभाव वालों का असंत कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग 

जो व्यक्ति उत्तम स्वभाव के हैं, कुसंग उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता जैसे चन्दन के वृक्ष पर साँप लपटे रहते हैं किन्तु वृक्ष मे ज़हर नहीं फैलता।

तुलसी

तुलसी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं और पहुँचे हुए सन्त भी। ज़रा उनके भी विचार देखिए।

तुलसी बुरा न मानिए जो गँवार कहि जाय
जैसा घर का नरदवा भला बुरा बहि जाय

गंवार की बात का  बुरा नहीं मानना चाहिए जैसे घर की नाली में भला बुरा सभी बह जाता है।

तुलसी सहन कर लेते हैं किन्तु वे कबीर की तरह कुटी छवाके रखने वाले नहीं है।

रामचरितमानस के बालकांड में उन्होंने सन्तौं और असन्तों दोनों की वन्दना की है:

बन्दहुँ संत असज्जन चरणा। दु:खप्रद उभय भेदु कछु बरना।।
बिछुरत एक प्रानु हरि लेहीं। मिलत एक दु:ख दारुन देहीं।।
मैं(तुलसी) संतों और असंतों दोनों की ही वन्दना करता हूँ। दोनों में बस थोड़ा सा अन्तर है। एक के बिछुड़ने पर जैसे प्राण ही निकल जाते हैं और दूसरे मिलने पर महान दु:ख देते हैं।
जनमहिं एक संग जलु माँहीं। जलज जोंक सम गुन बिलगाहीं।।
दोनों संत और असन्त जैसे कमल और जोंक की तरह हैं। दोनों ही पानी में एक साथ पैदा होते हैं किंतु उनके गुण ालग अलग होते हैं।
लगता है कि दुष्टों ने तुलसी को बहुत दु:ख दिये होंगे।

बहुरि बन्दि खलगन सति भाए। जे बिनु काज दाहिने बाँए।।

मैं(तुलसी) दुष्टों की सद्भाव से वन्दना करता हूँ जो किसी काम के बिना भी दायें बाँये लगे रहते हैं।

परहित हानि लाभ जिन केरे। उजरें हरष विषाद बसेरे।।

दूसरों की हानि से उनका(दुष्टों का) लाभ होता है। उनकोँ दूसरों का घर उजड़ने पर हर्ष और बसने पर दु:ख होता है।
लगता है कि दुष्टों से परेशान होकर उन्होंने कहा है:

सबते भले विमूढ जिन्है न ब्यापै जगत गति।
मूर्ख सबसे अच्छे हैं क्योंकि उन्हें दीन दुनिया की कोई ख़बर नहीं होती।
—-लक्ष्मीनारायण गुप्त
—-२६ मई २०१६
https://kavyakala.blogspot.com/2016/05/blog-post_27.html

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